हस्तिशुण्डि (हाथाजोड़ी) की पहचान और फायदे | Benefits of HastiSundi (Hathajori) in Hindi

हस्तिशुण्डि (HastiSundi) / हाथाजोड़ी (Hathajori) / Heliotropium Indicum (Indian heliotrope)


हस्तिशुण्डि (HastiSundi) / हाथाजोड़ी (Hathajori) / Heliotropium Indicum (Indian heliotrope)
HastiSundi / Indian Heliotrope



हस्तिशुण्डि के पौधे की पहचान - HastiSundi Ke Podhe Ki Pahchan


यह एक प्रकार का वर्षजीवी क्षुप होता है । इसका पौधा, हाथ-डेढ़ हाथ ऊँचा होता है ! यह सारा क्षुप एक प्रकार

के रुएं से आच्छादित रहता है। इसकी डालियां बहुत लगती हैं। जो हाथ की उङ्गली के समान मोटी हो जाती

हैं । इसके पत्ते हृदयाकृति और लम्बे डंठल वाले होते हैं। डालियों के सिरे पर सफेद फूलों के गुच्छे आते हैं। इस

सारे पौधे में धतूरे के समान गन्ध आती है । इसका जायका कुछ कड़वा होता है। इसके फूलों की मंजरी

बिलकुल हाथी की सूण्ड के समान होती है इसीसे इसे हस्तिशुण्डि कहते हैं ।



हस्तिशुण्डि के अन्य भाषाओं में नाम - Hastishundi name in other languages

संस्कृत - हस्तिशुण्डि (Hastisundi), श्रीहस्तिनी (Shrihastini), भुरुण्डी (Bhurundi)।

हिन्दी - हस्तिशुण्डि (Hastisundi), हाथी खुरं (Hathi Khur), सिरियारी (Siriyari)।

बंगला - हाथीसुरा (Hathisura)।

बम्बई - मुरुण्डी (Murundi), सूर्यकमल (Suryakamal)।

गुजराती - हाथी सुण्डा (Hathisunda - Hathi sunda) |

मराठी - भुहण्डो (Bhundo)।

तामिल – तेलमनि (Telmani)।

लेटिन - Heliotropium Indicum ( हेलिओट्रोपियम इण्डिकम ) |



हस्तिशुण्डि के गुण, दोष और प्रभाव - Benefits, defects and effects of Hastishundi


आयुर्वेदिक मत से यह वनस्पति कड़वी, संकोचक और हठीले ज्वर को दूर करने वाली होती है। यह वनस्पति ग्राही, कड़वी, वेदना नाशक, व्रणशोधक और व्रणरोपक होती है । ज्वर में इसके पत्ते लाभदायक होते हैं ।

इस वनस्पति के पत्ते संसार के बहुत से भागों में घावपूरक गुण के कारण और टूटी हड्डी को जोड़ने के गुण के कारण बहुत आदर की निगाह देखे जाते हैं । ये पत्ते अर्बुद, विद्रधि और प्रदाह में लगाने के काम में लिये जाते हैं | इसके अन्दर स्तिश्व-गुण विशेष तादाद में पाया जाता है। कुछ लोगों के मत से इस वनस्पति में मूत्र- निस्सारक गुण भी रहता है ।

यह वनस्पति चेहरे की फुन्सियों पर लगाने के काम में ली जाती है । प्रदाहयुक्त. चक्षुवेदना में भी यह उपयोगी है। इस औषधि की गले के रोगों में बहुत प्रशंसा है।

इसके फूल छोटी मात्रा में मासिक धर्म को नियमित करते हैं और बड़ी मात्रा में गर्भस्रावक होते हैं। 


↣ व्रणशोथ, व्रण और जखमों पर इसके पत्तों को बांधने से लाभ होता है । 


↣ त्रासदायक विद्रधि और नेत्राभिष्यन्द रोग में आंखों की पलकें सूज जाने पर इसका स्वरस लगाया जाता है ।


↣ व्रण और गले की गठानों पर इसका रस अरण्डी के तेल में मिलाकर लगाया जाता है । 


↣ टान्सिल की सूजन में इसके काढ़े से कुल्ले किये जाते हैं और इसका काढ़ा पिलाया जाता है ।


↣ इसकी जड़ें बिच्छू और सर्प के विष पर लगाने के काम में ली जाती है । 


↣ इसके पत्तों का रस अरण्डी के तेल में मिलाकर लगाने से बिच्छू के विष की वेदना कम हो जाती है । पागल कुत्ते के विष में भी यह लाभ पहुँचाती है ।


↣ इसके पत्तों की लुगदी से सिद्ध किया हुआ तेल गलित कुष्ठ में उपयोगी होता है ।


↣ पटना में इस वनस्पति के पत्ते दो माशे से लेकर नौ माशे तक की मात्रा में ज्वर को दूर करने के लिये उपयोग में लिये जाते हैं ।


↣ कम्बोडिया में इसके पत्तों का काढ़ा ज्वर को दूर करने के लिये और इसके फूल मासिक धर्म को नियमित करने के उपयोग में लिये जाते हैं । 


↣ इसके पत्ते और जड़ों का लेप बनाकर दाद और गठिया पर लगाने के काम में लिया जाता है । 


↣ गले के छालों और घावों को दूर करने के लिये यह एक उत्तम ओषधि है इसके पत्ते सुजाक और अग्नि-विसर्प रोग की चिकित्सा में काम में लिये जाते हैं ।


↣ कण्ठनाली के प्रदाह और टॉन्सिल्स की सूजन में यह बहुत उपयोगी वस्तु है। इन रोगों में इसके पत्तों और फूलों के काढ़े से कुल्ले किये जाते हैं और एक घण्टे के अन्तर से इसके पत्तों और फूलों का काढ़ा एक वाइन ग्लास की मात्रा में पिलाया जाता हैं।


↣ कर्नल चोपरा के मत से यह वनस्पति दुष्ट फोड़ों और जहरीले कीड़ों तथा सर्पविष के उपचार में काम में ली जाती है। इसमें टेनिन, आर्गेनिक एसिड और कुछ उपक्षार रहते हैं ।


हस्तिशुण्डि की मात्रा — इसके पत्तों की मात्रा आधे ड्राम तक होती है ।