अलसी के फायदे और नुकसान | Alsi (Linseed) Seeds Benefits in Hindi

 अलसी / Alsi / Linseed / Linum usitatissimum

अतसी (Atsi), पिच्छिला (Picchila), उमा (Uma), क्षुमा (Kshuma)।  हिन्दी  -  अलसी (Alsi), तीसी (Tisi), मसीना (Masina)।  बंगाली - मसीना (Masina), तीसी (Tisi)।  मराठी - जवस (Javas), अलशी (Alsi)।   गुजराती - अलशी (Alsi)।   कर्नाटकी - असगे (Asge) ।   तैलंगी - नल्लपगसिचेट्टू (Nallpagsichhettu)।   फारसी - तुमेकतान (TumekTaan)|   अरबी – वजरुल कतान (Vajrul Katan)।   अंग्रेजी – Lin Seed ।   लैटिन – Linum usitatissimum
ALSI KE BEEJ


अलसी की पहचान | Alsi Ki Pahchan | Identification of linseed


अलसी की फसल सारे भारतवर्ष में बहुतायत से होती है । इसका तेल सर्वत्र उपयोग में आता है । प्रायः सभी लोग इससे परिचित हैं, इसलिये इसके विशेष वर्णन की आवश्यकता नहीं है । कलकत्ता आदि स्थानों में लाल, सफेद और धूसर रंग के भेद से अलसी तीन प्रकार की होती है, इसके अतिरिक्त Linam Cath- articum नामक एक प्रकार की अलसी यूरोप में होती है जो विरेचन के काम में आती है ।





अलसी के अन्य भाषाओं में नाम | Name of linseed in other languages


संस्कृत — अतसी (Atsi), पिच्छिला (Picchila), उमा (Uma), क्षुमा (Kshuma)।

हिन्दी - अलसी (Alsi), तीसी (Tisi), मसीना (Masina)।

बंगाली - मसीना (Masina), तीसी (Tisi)।

मराठी - जवस (Javas), अलशी (Alsi)। 

गुजराती - अलशी (Alsi)। 

कर्नाटकी - असगे (Asge) । 

तैलंगी - नल्लपगसिचेट्टू (Nallpagsichhettu)। 

फारसी - तुमेकतान (TumekTaan)| 

अरबी – वजरुल कतान (Vajrul Katan)। 

अंग्रेजी – Lin Seed । 

लैटिन – Linum usitatissimum





अलसी के गुण, दोष और प्रभाव | Merits, demerits and effects of linseed


आयुर्वेदिक मत - आयुर्वेदिक मत से अलसी मन्द गन्धयुक्त, मधुर, बलकारक, किंचित् कफ वातकारक, पित्तनाशक, स्निग्ध, पचने में भारी, गरम, पौष्टिक, कामोद्दीपक, पीठ के दर्द और सूजन को मिटाने वाली है । इसके अतिरिक्त यह मूत्र की बीमारी और कुष्ठ को नष्ट करती है। नेत्र की ज्योति को हानि पहुँचाती है । किसी-किसी के मत से यह वीर्य को नष्ट करने वाली, दृष्टिनाशक और वातरक्त-विनाशक है ।


यह दूसरे दर्जे में गर्म और तीसरे दर्जे में रूक्ष है । किसी-किसी के मत से दूसरे दर्जे में शीतल और रूक्ष है । इसके बीज चिकने होते हैं । वे मूत्रनिस्सारक, कामोद्दीपक, दूध बढ़ाने वाले और ऋतुस्रावक नियामक होते हैं। खांसी और गुर्दे की तकलीफ में ये लाभदायक हैं, इसकी छाल और पत्ते सुजाक के लिए उत्तम हैं। इसकी छाल को जलाकर यदि घाव पर लगाया जाय तो यह रक्तस्राव को रोककर घाव को पूर देती है। इसके फूल मस्तिष्क और हृदय को पुष्ट करने वाले हैं। इसके बीज पित्तनाशक, रक्तशोधक, घावों को भरने वाले तथा दाद के लिए लाभकारी हैं। इसके भूंजे हुए बीज संकोचक माने लाते हैं। इसका सेक वायुगोले पर लाभकारी है।



सुश्रुत के अन्दर वात-प्रभात वात- रक्त में वेदना को दूर करने के लिये अलसी को दूध में पीसकर लेप करने का आदेश किया गया है। सुजाक के अन्दर भी सुश्रुत इसे लाभकारी बतलाते हैं ।



कर्नल चोपड़ा के मतानुसार अलसी की पुल्टिस नासूर, फोड़े वायु नलियों के प्रदाह इत्यादि यात्रियों पर लाभ पहुँचाती है। भीतरी उपचार में (पिलाने के काम में ) यद्यपि इसका उपयोग कम जिया जाता है, फिर भी लीनीमेंट वगैरह बनाने में इसका उपयोग होता है।


सन्याल और घोष के मतानुसार सब प्रकार के प्रदाहकारी फोड़ों पर इसकी पुल्टिस बनाकर लगाना मुफोद है। अलसी का पुल्टिस गठिया रोग की सूजन पर भी लगायी जाती है। इसके बीजों को पानी में गलाकर मसलने से एक प्रकार का लसदार स्निग्ध पदार्थ तैयार होता है। उसे आँखों की बीमारी (नेत्र शुक्ल रोग) में आंखों में डाला जाता है।


डायमॉक का कथन है कि सन् १७४० में 'गॅलस्की' ने अलसी के तेल को मस्तकशूल पर बहुत मुफीद बतलाया था। उन्होंने इसे अंतड़ियों की पीड़ा पर भी बहुत लाभदायक बतलाया है। इसके तेल की खुराक आधे औस से एक औसतक है। यह प्रातःकाल और सायंकाल मृदु विरेचक के तौर पर बवासीर में दी जाती है।





अलसी का रासायनिक विश्लेषण | chemical analysis of linseed


इसके बीजों में ३० से लेकर ३५ सैकड़ा तक तेल रहता है। इसका रंग ललाई लिये हुए गहरा पीला रहता है। हवा में रखने से यह तेल सूखता है और स्वच्छ वारनिश के रंग का हो जाता है। इसका उपयोग वारनिश बनाने के काम में लिया जाता है। अलसी में दस से लेकर पन्द्रह प्रतिशत तक खनिज तव रहते हैं। खास कर इसमें फासफेट ऑफ पोटेशियम, मेगनेशियम, कैलशियम और पचीस प्रति सैकड़ा प्रोटीन तत्व होते हैं। इसके छोटे झाड़ में एक प्रकार का साइनोजेनेटिन ग्लुकोसाइड व फैसिओल्डनेटिन नानक पदार्थ रहते हैं। 





अलसी के फ़ायदे | Alsi Ke Fayde | benefits of linseed


👉 अलसी की चाय भी बनाई जाती है। करीब आधा सेर पानी में आधी छटांक अलसी का बीज डालकर दस मिनट तक उबालकर इसे छान लेते हैं। यह रक्तातिसार और मूत्र- सम्बन्धी शिकायतों को दूर करने के काम में ली जाती हैं।


👉 इसके बीजों का उपयोग सुजाक की बीमारी में पिलाने के काम में लिया जाता है। मूत्राशय की अन्य तकनीकों में भी ये लाभदाक हैं, इसके तेल की पुल्टिस गठिया की सूजन पर लगाई जाती है |



👉 अलसी के तेल में समान भाग चूने का पानी मिलाने से केरान ( Carron ) नामक मिश्रण तैयार होता है। वह आग से जले हुने वा दाहकारक स्थान पर लगाने के लिए बहुत बढ़िया उपचार है।


👉 अलसी की चाय सूखी खांसी पर जो कि गल नाली की सूजन व फेफड़े के कुछ हिस्से की सूजन से पैदा होती है लाभदायक है आमाशय की जलन व सूजन पर तथा मूत्राशय और मूत्रनाली के प्रदाह या सुजाक इत्यादि रोगों पर भी यह लाभदायक है। 


👉 अलसी फोड़ा पकाने की एक प्रसिद्ध औषधि है इसको जल में पीसकर उसमें थोड़ा सा जौ का सत्तू मिलाकर खट्टी दही के साथ फोड़े पर लेप करने से फोड़ा पक जाता है ।


👉 वात- प्रधान फोड़े में अगर जलन और वेदना हो तो तिल और अलसी को भूनकर गाय के दूध में उबालें, ठण्डा होने पर उसी दूध में उन्हें पीसकर फोड़े पर लेप करने से लाभ होता है । 



👉 क्षयरोग - एक औंस अलसी के बीज को पीसकर रातभर ठण्डे जल में भिगो रक्खे, प्रातःकाल इस जल को मल, छानकर कुछ गर्म कर इसमें नींबू का रस मिलाकर पीना चाहिये क्षयरोगी के लिये इह एक अत्युत्तम पेय है।


👉 फोड़े- सोलह भाग अलसी एक भाग राई मिलाकर उसका पुल्टिस बांधने से फोड़े जल्दी पक जाते हैं।


👉 सुजाक - अलसी के बीजों के चूर्ण में मिश्री मिलाकर फंकी देने से तथा इसके तेल की पांच बूंद मूत्रेन्द्रिय के छेद में डालने से सुजाक में लाभ होता है । 


👉 पीठ का दर्द - इसके तेल में सोंठ का चूर्ण डालकर गर्म कर मालिश करने से पीठ का शूल मिटता है । 


👉 खाँसी - इसके बीजों को रोककर चूर्ण कर शहद के साथ चाटने से खांसी मिटती है।


👉 कान की सूजन- अलसी को प्याज के रस में पका कर उसे कान में टपकाने से कान की सूजन मिटती है।


👉 गुदा का घाव - अलसी की राख को गुदा के घाव पर भुर भुराने से घाव भर जाता है।